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‘योगःश्चित वृत्ति निरोधः’!-सुभाष बुड़ावन वाला

koi bhi ladki psand nhi aati!!!
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‘योगःश्चित वृत्ति निरोधः’!!!महर्षि पतंजलि ने इसे ‘योगःश्चित वृत्ति निरोधः’ के रूप में परिभाषित किया है। अर्थात मन का, चित्त का, वृत्तियों का अर्थात चंचलता का निरोध करना अर्थात उसे नियंत्रित करना ही योग है।

इसी प्रकार धारणा और ध्यान, धारणा मतलब किसी विषय या वस्तु पर मन को एकाग्र करना। ध्यान मतलब मन का इतना एकाग्र हो जाना कि साधक का बाहरी जगत से संपर्क टूट जाए व वह अंतर्मुखी/आत्मलीन हो जाए। यह अवस्था ध्यान से प्राप्त होती है।

ध्यान हमारे मन की वह अवस्था है जो कि जन्म से मृत्यु तक हमारे साथ होती है, किंतु समय के साथ आने वाली विपरीत परिस्थितियों के कारण बिखरती जाती है और जब ज्यादा बिखेरने लगती है, तो हमें उसे समेटने की आवश्यकता होती है और हम ध्यान करने लग जाते हैं।

इन सारी बातों से स्पष्ट है कि योग किसी धर्म से संबंधित नहीं है, बल्कि योग स्वयं ही एक धर्म है, क्योंकि मनुष्य को जीवन में कर्म करना व कर्म किस प्रकार करना चाहिए, यह योग सिखाता है। इस प्रकार योग श्रेयस (वास्तव में जो होना या करना चाहिए) तथा प्रेयस (जो हम अपने मन के कहने पर करना चाहते हैं) का भेद हमें समझाता है।

योग में जहां तक ॐ के उच्चारण का प्रश्न है, तो यह शब्द तीन अक्षरों से मिलकर बना है अ, ऊ, म। जिनका अध्ययन किए बगैर तो हम कभी अपने शैक्षणिक जीवन की पायदान भी नहीं चढ़ पाते। जहां तक अध्यात्म का प्रश्न है तो अ, ऊ, म तीनों का स्वर हमारे शरीर में स्थित अलग-अलग चक्रों से उत्पन्न होता है और जिसकी तरंगें जब उत्पन्न होती हैं, तो हमारे ही शरीर के आंतरिक अंगों की मालिश करती है और उन्हें मालिश के द्वारा स्वस्थ बनाती है।

इस प्रकार योग एक आचरण पद्धति है, जिसके द्वारा मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक व आध्यात्मिक विकास होता है। योग हमारे अस्तित्व से जुड़ा मार्ग है और हर मनुष्य का कर्तव्य और अधिकार भी।-सुभाष बुड़ावन वाला,18,शांतीनाथ कार्नर,खाचरौद[म्प]**

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