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आत्महत्या में कहां हैं महिलाएं?सुभाष बुड़ावन वाला

koi bhi ladki psand nhi aati!!!
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आत्महत्या में कहां हैं महिलाएं?

ग्रामीण महिलाओं को दूसरे तरह के शोषण का सामना भी करना पड़ता है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 1995 से अब तक भारत में तीन लाख किसानों ने खुदकुशी की है. सरकारी आंकड़ों में खुदकुशी करने वालों में ज़्यादातर पुरुष ही होते हैं.

लेकिन इससे महिलाओं पर काफी ज़्यादा दबाव आ जाता है, उन्हें अपने परिवार का बोझ उठाना पड़ता है. बैंक, महाजन और सरकारी दफ्तरशाही भी उनकी मुश्किलों को कई गुना बढ़ा देते हैं.

एक वास्तविकता ये भी है कि आत्महत्या करने वाली महिला किसानों के मामले दर्ज नहीं होते, क्योंकि महिलाओं को किसान नहीं माना जाता, उन्हें केवल किसान की पत्नी माना जाता है.
ग्रामीण महिलाएं भी आत्महत्या करती हैं लेकिन उनकी मौतें आत्महत्या के रूप में दर्ज नहीं की जातीं.

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उनके पास संपत्ति का अधिकार नहीं होता. संपत्ति पर मालिकान हक में महिलाओं का नाम अमूमन नहीं होता है. (आत्महत्या ग्रामीण भारत में गैर किसानी पृष्ठभूमि वाली महिलाओं की मौत की सबसे बड़ी वजह है.)

दुर्भाग्य ये है कि दुनिया भर में लाखों महिलाओं को साल दर साल इन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. यह तब है जब उन्हें मौजूदा समय की आधी से ज़्यादा समस्याओं का हल करने का नज़रिया और क्षमता दोनों मौजूद हैं.

इन समस्याओं में शामिल हैं: खाद्य सुरक्षा, पर्यावरणीय न्याय, सामाजिक और एकजुटता वाली अर्थव्यवस्था का विकास.
गंभीर बदलाव की ज़रूरत

इनमें से कुछ भी होने के लिए, हमें गंभीर बदलाव की ज़रूरत है न कि केवल मामूली कार्यक्रमों की.

हमें कई महिलाओं ने बताया कि वे खेतिहर मज़दूरी की जगह मालिक-उत्पादक की हैसियत में पहुंच गई हैं. इसमें वे समय और अपनी मेहनत का बेहतर नियंत्रण कर पाती हैं.

वे ये तय कर रहीं है कि क्या और कैसे उत्पादन करना है. ऐसे में इन ग्रामीण महिलाओं की आकांक्षाओं को समझने के लिए दो चीजों की दरकार है.

पहली चीज ये है कि उन्हें संसाधन पर अधिकार दिया जाए- ख़ासकर जमीन के स्वामित्व पर. संयुक्त राष्ट्र की खाद्य एवं कृषि संस्थान (एफएओ) के आकलन के मुताबिक़, विकासशील देशों में महिलाओं के पास जमीन का मालिकाना हक कम ही होता है.

अगर उनके पास जमीन का मालिकाना हक होता भी है तो वे बंजर होता है या फिर छोटा टुकड़ा भर होता है. यह दुनिया भर का चलन है. महिलाओं का मवेशियों और दूसरे संसाधनों का भी स्वामित्व नहीं होता.

दूसरी बात ये है कि महिलाओं के लिए संस्थागत ढांचा खड़ा करने की ज़रूरत है ताकि वे एकजुट और सामूहिकता के साथ चुनौतियों से निपट पाएं.
बराबरी का हक़ मिले

इसके लिए नए सिरे से सोचने की ज़रूरत है. व्यक्ति विशेष आधारित माइक्रो क्रेडिट का मॉडल तो दुनिया भर में लंबे समय से चल रहा है. दुनिया भर के कई हिस्सों से इस बात के काफी सबूत मिल चुके हैं कि इसने महिलाओं के जीवन को तबाह किया है.

भारत में सबसे सनसनीखेज उदाहरण आंध्र प्रदेश से मिलता है, जहां माइक्रो क्रेडिट के चलते कई आत्महत्या के मामले सामने आए हैं और कई माइक्रो लेंडिंग योजनाओं को बंद करने का अध्यादेश जारी करना पड़ा. (इस मसले पर अफ्रीका, लैटिन अमरीका में कई उदाहरण मौजूद हैं.)

स्वंय सेवी सहायता समूह के रूप में माइक्रो क्रेडिट का लोकप्रिय विकल्प उभरा है, लेकिन ये समूह में भी कई बार व्यक्तिगत तौर पर चलाए जाते हैं.

वैसे कोई भी संस्था तब तक कारगर नहीं हो सकती, जब तक महिलाओं को कमतर आंका जाएगा. उदाहरण के लिए, घर, समुदाय, कार्यक्षेत्र और राजनीतिक क्षेत्र में उन्हें बराबरी का हक़ मिले. ऐसा होगा, तभी जाकर अहम बदलाव नज़र आएगा.-सुभाष बुड़ावन वाला.,1,वेदव्यास,रतलाम[मप्र]*

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