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.स्वभाव !
हमारे अन्तर्जगत का काव्य है भाव। भाव जगत वाह्य जगत से भिन्न है। वाह्य जगत में वस्तुएं हैं, पदार्थ हैं, रूप और आकार है। उनके नाम हैं, गुण है। वे उपयोगी या अनुपयोगी है लेकिन भाव जगत में रूप, आकार या पदार्थ नहीं होते। यहां तर्क की जगह नहीं। उचित अनुचित का विमर्श नहीं। हरेक व्यक्ति का अपना अन्तर्मन है और अपना स्वभाव। स्वभाव की नदी नदी में नौका विहार का अपना आनन्द है। भावधारा के अनुसार बहें तो क्या करना? स्वभाव के प्रवाह में वहना प्रतिपल आनन्दमगन रहना है। स्वभाव के अनुसरण में गति करना ही स्वाभाविक कहा जाता है और इसके विपरीत चलना या वहना अस्वाभाविक।
प्रसन्नता का सम्बन्ध भाव से
स्वयं के प्रवाह की उल्टी दिशा में स्वयं ही चलना स्वाभाविक नहीं होता। भाव महत्वपूर्ण है। यह अन्तर्जगती यथार्थ है। भाव का न होना ‘अभाव’ कहा जाता है। यों रोटी, कपड़ा या अन्य सामान्य सुविधाओं का न होना भी अभाव कहा जाता है लेकिन ऐसा उचित नहीं जान पड़ता। वस्तुएं नहीं होती तो भी स्वभाव होता है। वस्तुओं का होना ‘भाव’ नहीं है। वस्तुओं का न होना भी ‘अभाव’ नहीं। संभवत: भाव की महत्ता के चलते ही वस्तुओं या पदार्थों के न होने को भी अभाव कहा जाता है। इस तरह गरीबी को भी अभाव कहा जाता है। लेकिन गरीबी और अभाव पर्यायवाची नहीं है। सामाजिक असुरक्षा अप्रसन्न करती है, दुख भी देती है लेकिन सामाजिक सुरक्षा में प्रसन्नता की गारंटी नहीं। ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’ वाली बात सही है लेकिन स्वतन्त्रता भी प्रसन्नता की गारंटी नहीं। ‘लिव इन’ प्रत्यक्ष रूप में स्त्री-पुरूष सम्बन्धों की स्वतन्त्रता है। इस स्वतन्त्रता के उपयोग में आनन्द मिलना चाहिए लेकिन इसमें तनाव ही तनाव है। भारतीय चिंतन में प्रसन्नता आंतरिक है। वह वाह्य कारकों का ही परिणाम नहीं है। उपनिषद् साहित्य में वाह्य कारणों से मिली प्रसन्नता का उल्लेख है लेकिन अन्त:करण की निष्कामता से प्राप्त आनन्द को उससे हजारों गुना ज्यादा बताया गया है। सभी कलाएं आनन्दवर्ध्दन हैं। रूप का आस्वाद आनंदित करता है, रस का आस्वादन रोम-रोम पुलकित करता है। गंध का प्रसाद अन्त:करण को भी पुलकित करता है। काव्य गीत भाव उद्दीपन करते हैं। भाव रूपहीन, रसहीन और गंधहीन होते हैं लेकिन अपनी परिपूर्णता में वे आनन्द का शिखर भी बनते हैं। कवि के सृजन में वे नया रूप भी धरते हैं। प्रसन्नता की इस संपदा का मूल्यांकन संयुक्त राष्ट्र या अर्थशास्त्र समाज विज्ञान से जुड़ी कोई संस्था नहीं करती। वे इसे कोरी भावुकता कह सकते हैं। वे भारतीय दर्शन और मनुभूति पर भी भाववाद का आरोप लगाते हैं। सो प्रसन्नता के वास्तविक सूचकांक तक उनका कोई सूचकांक नहीं पहुंचता।।-सभाष बुड़ावन वाला.,1,वेदव्यास,रतलाम[मप्र/।.
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