- 805 Posts
- 46 Comments
नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी। एक कौवे ने लाश को देखा तो प्रसन्न हो उठा और तुरंत उस पर आ बैठा। हाथी की काया पर चोंच मार कर खोदने लगा और छक कर मांस खाया। नदी का जल पिया। फिर लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए सोचने लगा- ‘अहा! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर क्यों इसे छोड़कर अन्यत्र भटकता फिरूं?’
कौवा स्वयं को बड़ा सयाना समझता था। नदी के साथ बहने वाली हाथी की उस लाश के ऊपर वह कई दिन तक रमता रहा। लाश बही जा रही थी और उस पर बैठा कौआ भी नदी पर तैरते हुए प्रकृति के मनोहरी दृश्य देख-देखकर वह विभोर हो रहा था।
एक दिन महासागर से नदी का मिलन हुआ। हाथी का शव भी उसके प्रवाह के साथ सागर में जा गिरा। इससे अनभिज्ञ कौए को थोड़ी ही देग बाद अपनी दुर्गति का भान हुआ।शारीरिक सुख और चार दिन की संतुष्टि ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेय जल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि स्वच्छंदतापूर्वक तरंगायित हो रही थी।
कौवा कुछ दिन चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता फिरा, किंतु उसे कहीं महासागर का ओर-छोर नज़र नहीं आया और तब थककर, दुख से कातर हो, वब लहरों में गिर गया। कोई गति नहीं। कोई द्वीप नहीं। बहते हुए उस कौए को एक विशाल जलजंतु ने निगल गया। कथा सुना कर तथागत ने कहा-भिक्षुओं! शरीर-सुख में लिप्त संसारी मनुष्यों की भी गति उसी निर्बुद्धि कौवे की गति की तरह ही होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानता आया था।प्र-सभाष बुड़ावन वाला.,
Read Comments