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बेंगलुरु की शालिनी बारहवीं कक्षा में 84% लाकर टी.वी. पर थीं। आप कहेंगे ये नम्बर ऐसे तो नहीं कि किसी का इंटरव्यू आए। बिल्कुल, जब तक आपको ये मालूम न चले कि ऐसा उसने पाँच घरों में झाड़ू-पोछा और बर्तन-कपडे करने के साथ किया। उसके पास और कोई चारा भी तो नहीं था। पिता एक दुर्घटना का शिकार हो घर बैठने को मजबूर हैं और माँ एक अस्पताल में सफाई कर्मचारी। इतने पर भी चल जाता पर अपने प्यारे छोटे भाई को ब्लड-कैंसर होने और अस्पताल में भर्ती हो जाने के बाद वो और करती भी क्या? उसे यूँ हाथ पर हाथ धरे अपने परिवार की तकलीफों को देखना गवारा न हुआ। इन सब के बीच ऐसा भी नहीं कि वो अपने सपनों का पीछा छोड़ दे। उसने साइंस-मैथ्स ली क्योंकि वो इंजीनियर बनना चाहती हैं, अपने परिवार से पहली।
जब रिपोर्टर ने उसकी दिनचर्या पूछी तो शालिनी ने फर्राटेदार अंग्रेजी में बताया, वो सुबह 4.30 से 5.30 तक एक घर में रंगोली बनाने जाती है फिर 5.30 बजे से 7.30 बजे तक दूसरे घर में झाड़ू-पोछा और वहाँ से तीसरे घर में 9 बजे तक बर्तन-कपड़े। फिर घर लौट कुछ नाश्ता करती है और पढाई। दोपहर में एक बार फिर निकलती है दो और घरों में फिर यही सब काम करने। रात को फिर पढ़ाई। भाग्य को कोसने की बजाय उसने कर्म को चुना और देखिये कर्म ही उसके और उसके परिवार के भाग्य को बदलने लगा है। बस एक बात समझ नहीं आती, आखिर कितनी शालिनियों की हिम्मत और मेहनत लगेगी हमें ये समझाने में कि बेटियाँ एक नहीं दो-दो घरों का भाग्य होती है।सभाष बुड़ावन वाला.,
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